Adfly

Saturday 30 June 2012

Game Reviews

Most Famous Hindi Poems


                राम          / सुरेश सेन नि‍शांत
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बहुत गहरे तक
मेरे अंतस में बैठी है
मानस की चौपाइयाँ गाती
रामलीला की वह नाटक-मंडली
कसकर पकड़े हुए हूँ
दादी माँ की अँगुली
लबालब उत्साह से भरा
दिन ढले जा रहा हूँ
रामलीला देखने
बहुत गहरे तक
दादी माँ की गोद में मैं धँसा हुआ हूँ
नहा रहा हूँ
दादी की आँखों से
झरते आँसुओं में
राम वनवास पर हैं
राम लड़ रहे हैं
राक्षसों से
राम लड़ रहे हैं
दरबार की लालची इच्छाओं से
राम लड़ रहे हैं अपने आप से
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस राम में
बचपन में पता नहीं
कितने ही अँधेरे भूतिया रास्ते
इसी राम को करते हुए याद
किए हैं पार
बचाई है इस जीवन की
यह कोमल-सी साँस वह
राम
जिसे ‘छोटे मुहम्मद’ निभाते रहे
लगातार ग्यारह साल
कस्बे की रामलीला में
छूती थीं औरतें श्रद्धा से जिसके पाँव
अभिभूत थे हम बच्चे
उस राम के सौंदर्य पर
पता नहीं कब बंद हो गईं
वे रामलीलाएँ
पता नहीं कब वह राम
मुसलमान में हो गया परिवर्तित
डरा-डरा गुज़रता है आजकल
रामसेवकों के सामने
उस रामलीला के पुराने
मंच के पास से वह राम
वैसे मेरा वह राम
मानव की चौपाइया
आज भी उतनी तन्मयता से गाता है
उतनी ही सौम्य है
अभी भी उसकी मुस्कान
उतना ही मधुर है
अभी भी उसका गला
पर दिख ही जाती है उदासी
उसकी आँखों में तिरते
उस प्यार-भरे जल में छुपी
बहुत गहरे तक
डूबा हुआ हूँ मैं उस शाम में !




प्रभु तुम मेरे मन की जानो                     / सुभद्राकुमारी चौहान           
मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥

यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥






एक अजन्मे बच्चे का डर        / ऋषभ देव शर्मा
               
इक्कीसवीं शताब्दी की
पहली रात के अँधेरे में
जन्म लेना चाहता है एक शिशु
पर सहम-सहम जाता है
वापस लौट जाता है
उसी अँधेरी गुफा में
जिसके
शीतल गर्भ में
सोया हुआ था
अनादि काल से।

‘बच्चे!
यह कैसी ज़िद है,
कैसा भय है,
तुम जन्मते क्यों नहीं?’

-अपने माथे का पसीना
पोंछती हुई
पूछती है
धरती की
बूढ़ी़ आया।

अष्टावक्र सरीखा
बच्चा
चीख उठता है गर्भ में से :

‘नहीं आना है मुझे
तुम्हारी इस धरती के नरक में।
क्या है तुम्हारे पास मुझे देने को?
कुछ और नए हथियार बना डालोगे तुम
मेरी पैदाइश की खुशी में,
और दागोगे
मेरे भविष्य की छाती पर
बन्दूकें और मशीनगनें,
फोडो़गे कुछ नए बम,
बरसा दोगे
रेडियोधर्मी विकिरणों की बारिश
मेरे दिमाग के हर कोने में।
मुझे नहीं आना है
तुम्हारी दुनिया हें।
नहीं.......नहीं.....नहीं!’

और फिर छा जाती है
एक चुप्पी।
अजन्मे बच्चे के इन्कार का
कोई जवाब
किसी के पास नहीं है,
किसी के पास नहीं है कोई जवाब |

एक बार फिर
सुनाई पड़ती है
बच्चे की आवाज़,
राजा बलि के दरवाज़े पर
गुहार लगाते
वामन की तरह :

‘मुझे
तुम्हारी दुनिया में आने के लिए
तीन डग ज़मीन चाहिए।
सिर्फ तीन डग
साफ-सुथरी जमीन!
तीन डग जमीन-
जिस पर
कभी कोई
युद्ध न लडा़ गया हो,
तीन डग ज़मीन -
जिस पर
कभी किसी अस्त्र-शस्त्र की
छाया न पडी़ हो,
तीन डग ज़मीन-
जिसकी वायु शुद्ध
और प्रकृति पवित्र हो!’

आवाज़ कहीं खो गई है,
बच्चा भी चुप है,
धरती की बूढी़ आया भी चुप है,
चुप हैं तमाम महामहिम भूमिपति,
तमाम बड़बोले भूमिपुत्र भी चुप हैं।
नहीं बची है किसी के पास-
तीन डग ज़मीन
जिसकी वायु शुद्ध
और
प्रकृति पवित्र हो!



मेरा नया बचपन                    / सुभद्राकुमारी चौहान
               
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥





गांधी  / महेन्द्र भटनागर

मानव-संस्कृति के संस्थापक, नव-आदर्शों के निर्माता,
आने वाली संसृति के तुम निश्चय, जीवन भाग्य-विधाता !

सत्य, अहिंसा की सबल नींव पर, सार्थक निर्मित किया समाज,
देश-देश में नगर-नगर में गूँज उठी नयी-नयी आवाज़ !

सदियों की निष्क्रियता पर तुम कर्मदूत बनकर उदित हुए,
विगत युगों के भौतिक-शृंग तुम्हारी धारा से विजित हुए !

नैतिक-हीना सघन निशा में धु्रव दिया तुम्हीं ने सतत प्रकाश,
घिरे निराशा के घन में तुम ने, भर दी तड़ित-चमक-सी आश !


त्रास्त दुर्बल विश्व को सुख, शक्ति के उपहार हो तुम !

मनुज जीवन जब जटिल, गतिहीन होकर रुक गया है,
शृंखलाएँ बंधनों की तोड़ता जब थक गया है,
दमन, अत्याचार, हिंसा से प्रकम्पित झुक गया है,
एक सिहरन, नव-प्रगति के, शांति के अवतार हो तुम !

कर युगान्तर युग-पुरुष तुम स्वर्ण नवयुग ला रहे हो,
नग्न-पशुबल-कर्म गाथा तुम सुनाते जा रहे हो,
मुक्त बलिपथ पर निरन्तर स्नेह-कण बरसा रहे हो,
धैर्य, नूतन चेतना, उत्साह के संसार हो तुम !

तुमने बुझते
युग-मानव के उर-दीपक में
निज जीवन का संचित स्नेह ढाल
अभिनव ज्योति जगायी है !
पर, उस दिन को जोह रहे हम
जब कह पाएँ
किरणों की आभा में जिसकी
सुन्दर जगमग झाँकी भव्य सजायी है !
मानवता की मानों हुई सगाई है !
नव-मानव शिशु को तुमने जन्म दिया,
जीने का अधिकार दिया,
निर्मल सुख शांति अमर उपहार दिया,
होठों को निश्छल मुक्त हँसी का
वरदान दिया,
कोटि-कोटि जन को रहने को
आज़ाद नया हिन्दुस्तान दिया !
जिसके नभ के नीचे
सत्य, अहिंसा का नूतन फूल खिला,
फैली बर्बर जर्जर संस्कृति के भीतर
ज्ञान-सुगन्ध हवा ;
जिसने पीड़ित जन-जन का ताप हरा !

तुमने भर ली अपने उर में
युग की सारी मर्म व्यथा !
जिसको क्षण भर देख लिया केवल
उसने समझा अब जीवन पूर्ण सफल !
याद तुम्हारी शोषित दुनिया का संबल !
एक दिवस उट्ठेगा निश्चय
सोया, भूला समुदाय
तुम्हारा ही प्रेरक-स्वर सुनकर !

पीड़ितों, वंचित-दलित-जन के उरों में आश भर-भर
प्राणमय, संदेशवाहक, साम्य का नव-गीत गा कर,
मुक्त उठने के लिए तुम दे रहे हो पूर्ण अवसर ;
देख मानवता जगी, दुर्जेय कर्णाधार हो तुम !


प्राची के उगे तुम सूर्य
सहसा बुझ गये !
पर, तुम्हारी
फैलती ही जा रही है ज्योति !
दिग-दिगन्तों में समा,
अति शीत ईथर के
असीमित तम किनारों तक,
कि मन की सूक्ष्मतम सब
घाटियों के अंध तम से बंद
पट ज्योतित !
तुम्हारी दिव्य शाश्वत
आत्मा के तेज से
ये धुल गये
जीवन-मलिनता के
अशिव सब भाव !
युग-युग की दबी
खंडित धरित्री पर
गयी बह सत्य अमृत धार !
तुमने कर दिया
उपचार घावों का,
मनुजता के सभी
आधार दावों से !
जगत को कर दिया आश्वस्त
देकर मुक्त विश्व-विधान,
जो सुखमय भविष्यत् का
अमर वरदान !


आज हमारी श्वासों में जीवित है गांधी,
तम के परदे पर मन के ज्योतित है गांधी,
जिससे टकरा कर हारी पशुता की आँधी !

सिहर रही हैं गंगा, यमुना, झेलम, लूनी,
प्राची का यह लाल सबेरा लख कर ख़ूनी,
आज कमी लगती जग को पहले से दूनी !

पर, चमक रही है मानव आदर्शों की ज्वाला,
जिसको गांधी ने तन-मन के श्रम से पाला,
हर बार पराजित होगा युग का तम काला !


बुझ न सकेगी यह जन-जीवन की चिनगारी,
बढ़ती ही जाएगी इसकी आभा प्यारी,
निश्चय ही होगी वसुधा आलोकित सारी !

Friday 29 June 2012

No one

                            No One

                                                              by Hareesh V Manoj
life is passing
everything changing,
I don't feel no more happiness
cause I am always sad.
Life is Boring
I can't feel it
I hear no more
laugh, cry , or joy.
No one wants me
cause I am no one.
Will one be there
waiting for me
on and on and on